चोटी की पकड़–38
गरमी निकालने के लिए डी. एस. पी. या एस. पी. ने बुलाया। राजा ने मुख्तारआम या मैनेजर को भेज दिया।
कमजोरी से कभी बात न दबी, डी. एस. पी. ने पूछा, "राजा नहीं आए?" मुख्तारआम ने कहा, "इजलास में तो मैं ही हुजूर के सामने हाज़िर होता हूँ", या मैनेजर ने कहा, "आप की सेवा के लिए हम लोग तो हैं ही।" उस दफ़े ख़ामोशी रही।
दोबारा बदला चुकाया गया। पहले कुछ प्रजाओं की दस्तखतशुदा शिकायतें की गईं। ऊंचे कर्मचारियों को दिखाया गया।
कहा गया कि राजा पर सरकार का शासन नहीं, थान में थोड़े लोग रहते हैं, राजा के लोग उनको डरवाए रहते हैं, राजा बदचलन है, रैयत की इज्जत बिगाड़ता है,
पुलिस की सच्ची तहकीकात नहीं होने देता, पुलिस को अधिकार के साथ काम करने दिया जाए तो रास्ते पर आ जाए। हुक्म लेकर दरबार का चकमा दिया गया। राजा गए।
पर दरबार से शिकायत करनेवाले लोगों की ही शिरक़त रही। राजा को कुर्सी भी न दी गई। लाट साहब से शिरकत करनेवाले डी.एस. पी. भी खड़े रहे। लिखी शिकायतों के आधार पर कुछ भला-बुरा कहा, कुछ नसीहत दी। डी. एस. पी. साहब की तारीफ करते रहे।
जिन शिकायतों का आधार लिया गया था, उनमें राजा का हाथ न था, फलत: चेहरे पर सियाही न फिरी, कलेजा न धड़का।
दरबार समाप्त हो जाने पर उन्होंने लाट साहब को लिखा कि दरबार के नाम पर उनके साथ डी. एस. पी. ने ऐसा-ऐसा बर्ताव किया, वहाँ कुछ प्रजाजन थे, वे उन्हें पहचानते नहीं-किनके थे, कौन थे। उनके आदमी घुसने नहीं दिए गए।
जो बातें डी. एस. पी. ने कहीं, उनका तात्पर्य वह नहीं समझे। वे ऐसी-ऐसी बातें थीं। पुलिस में नौकर होनेवाले ये साधारण लोग रिश्वत लेकर देश को उजाड़े दे रहे हैं।
इसका व्यक्तिगत संबंध ही है। पुलिस के दांत यहाँ तक डूबे हुए हैं कि नियत आमदनीवाली प्रजा झूठे मामले में रिश्वत देकर राजस्व नहीं दे पाती। यह एक-दो की संख्या में नहीं, सैकड़ों की संख्या में, जमींदारों के 25 थानों में प्रतिमास होता है।
नतीजा यह हुआ है कि जाल में फँसायी गई प्रजा रिश्वत से पैर छुड़ाकर फिर राजस्व नहीं दे पाती। यह प्रक्रिया उत्तरोत्तर बढ़ रही है। जमींदार को राजस्व न मिलने पर वह क़र्ज़ लेकर सरकार को देगा या न दे पाएगा। इस परिणाम से भी उन्हें गुजरना पड़ा है। सरकार से इसका प्रतिकार होना चाहिए।